साल 2019 भारतीय मीडिया में बड़े बदलाव के रूप में दर्ज़ किया जाएगा. हालाँकि, बदलाव का दौर पहले से चल रहा था और नए ट्रेंड छिपे हुए नहीं थे, मगर इस साल जैसे वे अपने चरम पर पहुँच गए.
अब भारतीय मीडिया की दिशा और दशा दोनों बिल्कुल साफ़ दिखने लगी हैं.
मंदी के इस दौर में भी करीब ग्यारह फ़ीसदी की दर से विकास कर रही मीडिया इंडस्ट्री अब एक लाख करोड़ से ज़्यादा की हो गई है. संभावना है कि साल 2024 तक ये तीन लाख करोड़ का आँकड़ा पार कर जाएगी.
पत्र-पत्रिकाओं की संख्या एक लाख पंद्रह हज़ार से ऊपर हो गई है और टीवी चैनल 900 तक पहुँचने वाले हैं. एफएम रेडियो का जाल पूरे देश में बिछ गया है और डिज़िटल मीडिया की तो बात ही छोड़ दीजिए, उसकी विकास दर सबसे अधिक है. विज्ञापनों से आने वाला राजस्व ज़रूर अपेक्षा के अनुसार नहीं बढ़ रहा, फिर भी वह ठीक-ठाक है.
तो क्या हम इसी पैमाने के आधार पर मान लें कि हमारा मीडिया सेहतमंद है? या फिर ये देखना भी ज़रूरी है कि एक लोकतांत्रिक देश में वह अपनी भूमिका कितनी और कैसे निभा रहा है?
वास्तव में विदा लेता हुआ साल मीडिया को नए सिरे से परिभाषित करते हुए जा रहा है. उसने व्यावसायिक मीडिया के नए चरित्र को स्पष्ट कर दिया है, उसके इरादों और सरोकारों को उजागर कर दिया है. अब मीडिया को लेकर बहुत कम भ्रम रह गया है.
भारत में ये साल आम चुनाव का था और हर चुनाव मीडिया के लिए परिवर्तनकारी होता है. लेकिन, इस बार चुनाव से भी ज़्यादा परिवर्तनकारी घटना पुलवामा में हुआ आतंकवादी हमला था. इस हमले के बाद बालाकोट पर वायुसेना की सर्जिकल स्ट्राइक और फिर अभिनंदन की रिहाई ने न केवल चुनाव का एजेंडा बदल दिया, बल्कि इससे राजनीति का नरैटिव ही बदल गया.
जिस सरकार की वापसी को लेकर संदेह ज़ाहिर किए जा रहे थे, उसकी जीत को इसने सुनिश्चित कर दिया. पुलवामा के बाद देश में राष्ट्रोन्माद की एक लहर पैदा की गई. इसमें राजनीति का योगदान तो था ही, मगर मीडिया की भूमिका भी कम नहीं थी. उसने सत्ताधारी दल की ज़रूरत के अनुरूप चुनावी एजेंडा तय करने में बड़ी भूमिका निभाई.
सच तो ये है कि वह सत्तारूढ़ दल और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का प्रवक्ता बन गया. उसने विपक्ष को दरकिनार ही नहीं किया, उसे कठघरे में खड़ा करके सत्तापक्ष के लिए स्थितियों को अनुकूल भी बना डाला. नतीजा बीजेपी और उसके सहयोगी दलों की अभूतपूर्व जीत के रूप में सामने आया.
मोदी की जीत के साथ ही उग्र राष्ट्रवाद को नए पंख लग गए. मीडिया भी उसके सहारे उड़ने लगा. तमाम मीडिया संस्थान इस अति-राष्ट्रवाद का झंडा उठाकर चलने लगे. इसका मतलब ही था बीजेपी का अंध-समर्थन और उसके विरोधियों का अंध-विरोध.
अब हमारे सामने प्रश्न पूछने वाला, जवाबदेही तय करने वाला और आलोचना करने वाला नहीं, कीर्तन करने वाला भक्त-मीडिया था.
दोबारा सत्ता में आने के आत्मविश्वास से भरी सरकार ने मीडिया पर अपना नियंत्रण और भी बढ़ाना शुरू कर दिया. नतीजतन, जो थोड़ी-बहुत आज़ादी चुनाव के पहले के मीडिया में दिखलाई दे रही थी, वह भी ग़ायब हो गई. सरकार का एजेंडा उसका एजेंडा हो गया. वह सरकार की प्रोपेगंडा मशीनरी की तरह काम करने लगा.
सरकार के प्रति इस बढ़ती वफ़ादारी का असर हमें बार-बार दिखा. टीवी-अख़बारों का कंटेंट मुसलमान और पाकिस्तान तक सीमित रहने लगा. अर्थव्यवस्था पर गहराते संकट की ख़बरें हाशिए पर धकेल दी गईं. सरकार की नाकामियों पर बात करने का तो रिवाज़ ही जैसे ख़त्म हो गया.
न्यूज़ चैनलों पर होने वाली नब्बे प्रतिशत चर्चाएं हिंदू-मुस्लिम पर होने लगीं. उनमें घूम-फिरकर सांप्रदायिक उन्माद को हवा देने वाली नफ़रत और हिंसा से सनी झड़पों के दृश्य रचे जाने लगे. सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के एजेंडे से लैस सरकार उन्हें इसके लिए मुद्दे उपलब्ध करवाती रही.
वह तीन तलाक, धारा 370, अयोध्या विवाद और नागरिकता संशोधन जैसे मुद्दे एक-एक करके लाती रही और मीडिया उन्हें उसकी इच्छा के अनुरूप पैकेज करके परोसता रहा. गौरक्षा और मॉब लिंचिंग जैसे मसले तो पहले से थे ही, इतिहास और पहले से चले आ रहे स्टीरियोटाइप्स का भी इस्तेमाल इसके लिए किया गया.
कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने के बाद तो उसका रवैया एकदम से संविधान विरोधी ही हो गया. उसे कश्मीरियों के मौलिक अधिकारों की कोई चिंता नहीं रही, बल्कि सरकारी दमन को वह जायज़ ठहराता रहा. यहाँ तक कि उसे अपनी स्वतंत्रता की भी चिंता नहीं रही.
उसके इसी रवैये का असर था कि लोग विदेशी मीडिया का रुख़ करने लगे. विडंबना देखिए कि एक बार भारतीय मीडिया की तुलना में विदेशी मीडिया उन्हें ज़्यादा भाने लगा. उन्हें विदेशी चैनल और पत्र-पत्रिकाएं अधिक विश्वसनीय लगने लगे.
उन्हें लगने लगा कि अघोषित आपातकाल से गुज़र रहा भारतीय मीडिया सच नहीं बताएगा, इसके लिए तो उन्हें बीबीसी, द गार्डियन और वॉशिंगटन पोस्ट की मदद लेनी पड़ेगी. तुलना की इस प्रक्रिया में ये और भी ज़्यादा उजागर हो गया कि भारतीय मीडिया कतई स्वतंत्र नहीं है. उसकी बची-खुची साख़ भी धूल धूसरित हो गई.
इस तरह साल के अंत तक मीडिया का चरित्र पूरी तरह से बदल चुका था. विचारों की विविधता और बहुलता ख़त्म हो गई. मतभेदों को अपराध बना दिया गया. हेट न्यूज़ या हेट कंटेंट अख़बारों के पन्नों से लेकर टीवी स्क्रीन तक हर जगह पसर गया.
नए मीडिया की कमान बाज़ारवादी-राष्ट्रवादी-सवर्णवादी पत्रकारों के हाथ में जा चुकी है. ज़ाहिर है कि दलित-आदिवासियों की चिंताएं उसके दायरे से बाहर हो चुकी हैं. अगर बलात्कार न हो तो महिलाओं पर भी वह वक़्त बरबाद न करे. अल्पसंख्यक तो उसके सीधे निशाने पर हैं.
मानवाधिकार कार्यकर्ता, स्वयंसेवी संगठनों से जुड़े लोग, वामपंथी और उदारवादी भी उसके लिए खलनायक बन गए हैं. वह इन्हें कभी टुकड़े-टुक़ड़े गैंग की संज्ञा देता है तो कभी अर्बन नक्सलाइट बताता है. इनका चरित्र हनन करना और जनता की निगाहों में उन्हें देशद्रोही बनाना उसके अघोषित लक्ष्यों में से एक बन गया है.
ऐसा नहीं है कि मीडिया का ये रूप उसकी सहमति या इच्छा से निर्मित हुआ है. ये सही है कि मीडिया में इनके प्रति स्वाभाविक रुझान रहा है. ऐसा उसकी आंतरिक संरचना की वज़ह से भी है. वह सत्ता, उच्च-मध्यवर्ग और अपरकास्ट की ओर पहले से झुका हुआ है. मगर इसके लिए सरकार ने हर हथकंडा भी अपनाया है.
सरकार ने कभी संकेतों में तो कभी बाकायदा एडवायज़री और चेतावनियाँ देकर मीडिया को धमकाया है. उसने कई बड़े अख़बारों के विज्ञापन रोककर मीडिया जगत में भय पैदा किया. उसकी भृकुटियाँ तनीं देखकर कई संपादकों और पत्रकारों को संस्थानों से निकाला गया. उसने भय का ऐसा वातावरण बनाया कि मीडिया झुकने के बजाय रेंगने लगा.
मीडिया का नया चरित्र दूसरे माध्यमों जैसे सोशल मीडिया के प्रभाव-दबाव से भी बना. सोशल मीडिया में अतिरंजित टिप्पणियाँ और भड़काऊ कंटेंट की सफलता ने उसे भी ललचाया और वह भी उसके जैसा बनने लगा. लेकिन इस मीडिया पर सरकार और सत्तारूढ़ दल का ज़ोर काम कर रहा था.
फ़ेसबुक, व्हाट्सऐप, ट्वीटर और यू ट्यूब में जो कंटेंट पैदा हो रहा है वह कई तरह के अविश्वसनीय स्रोतों से भी आ रहा है. इसमें राजनीतिक दलों के आईटी सेल भी हैं, ट्रोलर भी हैं और बाज़ार की ताक़तें भी. इसीलिए फ़ेक न्यूज़ का असर उस पर भी दिखलाई देने लगा.
मीडिया इंडस्ट्री में आ रहे बदलाव भी बड़ी वजहों में से एक हैं. एक तो तकनीक मीडिया यूजर्स के व्यवहार में व्यापक बदलाव लाई है. स्मार्ट फ़ोन अब ख़बरें और दूसरे कंटेंट देखने का सबसे बड़ा प्लेटफ़ॉर्म बन गया है और उसकी अपनी सीमाएं भी हैं. इस प्लेटफ़ॉर्म के हिसाब से कंटेंट तैयार करना और दूसरों से होड़ लेना बड़ी चुनौती है.
मीडिया में बड़ी पूँजी वाले कॉर्पोरेट का बढ़ता वर्चस्व भी उसकी स्वतंत्रता को ख़त्म कर रहा है. कॉर्पोरेट अपने स्वार्थों के लिए मीडिया को हथियार बना रहे हैं और इस क्रम में उन्होंने सत्ता से गठजोड़ कर लिया है. ये प्रवृत्ति इस साल और भी बढ़ी है.
लेकिन मुख्य अपराधी तो सरकार ही है. उसने आपातकाल की घोषणा नहीं की है और न ही औपरचारिक सेंसरशिप लागू की है. मगर मीडिया को मजबूर कर दिया है कि वह उसके हितों के हिसाब से चले, वह चल रहा है.
जब इसराइली स्पाईवेयर की मदद से मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ही नहीं, पत्रकारों के संदेशों तक को रिकॉर्ड किया जा रहा हो तो अच्छी पत्रकारिता के लिए गुंज़ाइश ही कहाँ बचती है.